Wednesday 20 June 2018

सांख्य दर्शन


सांख्य दर्शन  
प्राचीनता और परम्परा
महाभारत[1] में शान्तिपर्व के अन्तर्गत सृष्टि, उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और मोक्ष विषयक अधिकांश मत सांख्य ज्ञान व शास्त्र के ही हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि उस काल तक (महाभारत की रचना तक) वह एक सुप्रतिष्ठित, सुव्यवस्थित और लोकप्रिय एकमात्र दर्शन के रूप में स्थापित हो चुका था। एक सुस्थापित दर्शन की ही अधिकाधिक विवेचनाएँ होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्याख्या-निरूपण-भेद से उसके अलग-अलग भेद दिखाई पड़ने लगते हैं। इसीलिए महाभारत में तत्त्वगणना, स्वरूप वर्णन आदि पर मतों की विविधता दृष्टिगोचर होती है। यदि इस विविधता के प्रति सावधानी न बरती जाय तो कोई भी व्यक्ति प्रैंकलिन एडगर्टन की तरह यही मान लेगा कि महाकाव्य में सांख्य संज्ञा किसी दर्शन विशेष के लिए नहीं वरन् मोक्ष हेतु 'ज्ञानमार्ग' मात्र के लिए ही प्रयुक्त हुआ है।[2] इस प्रकार की भ्रान्ति से बचने के लिए सांख्य दर्शन की विवेचना से पूर्व 'सांख्य' संज्ञा के अर्ध पर विचार करना अपेक्षित है।
'सांख्य' शब्द का अर्थ
सांख्य शब्द की निष्पत्ति संख्या शब्द से हुई है। संख्या शब्द 'ख्या' धातु में सम् उपसर्ग लगाकर व्युत्पन्न किया गया है जिसका अर्थ है 'सम्यक् ख्याति'। संसार में प्राणिमात्र दु:ख से निवृत्ति चाहता है। दु:ख क्यों होता है, इसे किस तरह सदा के लिए दूर किया जा सकता है- ये ही मनुष्य के लिए शाश्वत ज्वलन्त प्रश्न हैं। इन प्रश्नों का उत्तर ढूँढ़ना ही ज्ञान प्राप्त करना है। 'कपिल दर्शन' में प्रकृति-पुरुष-विवेक-ख्याति (ज्ञान) 'सत्त्वपुरुषान्यथाख्याति' इस ज्ञान को ही कहा जाता है। यह ज्ञानवर्धक ख्याति ही 'संख्या' में निहित 'ज्ञान' रूप है। अत: संख्या शब्द 'सम्यक् ज्ञान' के अर्ध में भी गृहीत होता है। इस ज्ञान को प्रस्तुत करने या निरूपण करने वाले दर्शन को सांख्य दर्शन कहा जाता है।
  • 'सांख्य' शब्द की निष्पत्ति गणनार्थक 'संख्या' से भी मानी जाती है। ऐसा मानने में कोई विसंगति भी नहीं है।
  • डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र लिखते हैं-'ऐसा प्रतीत होता है कि जब तत्त्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक जगत की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्त्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की गई।[3]' लेकिन आचार्य 'उदयवीर शास्त्री' गणनार्थक निष्पत्ति को युक्तिसंगत नहीं मानते 'क्योंकि अन्य दर्शनों में भी पदार्थों की नियत गणना करके उनका विवेचन किया गया है। सांख्य पद का मूल ज्ञानार्थक 'संख्या' पद है गणनार्थक नहीं।[4]'हमारे विचार में गणनार्थक और ज्ञानार्थक- दोनो रूपों में सांख्य की सार्थकता है। उद्देश्य-प्राप्ति में विविध रूप में 'गणना' के अर्थ में 'सांख्य' को स्वीकार किया जा सकता है। शान्तिपर्व में दोनों ही अर्थ एक साथ स्वीकार किये गये हैं।[5]
संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते।
तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:॥
[6] 
  • प्रकृति पुरुष के विवेक-ज्ञान का उपदेश देने, प्रकृति का प्रतिपादन करने तथा तत्त्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करने के कारण ये दार्शनिक 'सांख्य' कहे गये हैं। 
  • 'संख्या' का अर्थ समझाते हुए शांति पर्व में कहा गया है- 
दोषाणां च गुणानां च प्रमाणं प्रविभागत:।
कंचिदर्धममिप्रेत्य सा संख्येत्युपाधार्यताम्॥
[7]
अर्थात जहाँ किसी विशेष अर्थ को अभीष्ट मानकर उसके दोषों और गुणों का प्रमाणयुक्त विभाजन (गणना) किया जाता है, उसे संख्या समझना चाहिए। स्पष्ट है कि तत्त्व-विभाजन या गणना भी प्रमाणपूर्वक ही होती है। अत: 'सांख्य' को गणनार्थक भी माना जाय तो उसमें ज्ञानार्थक भाव ही प्रधान होता है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि 'सांख्य' शब्द में संख्या ज्ञानार्थक और गणनार्थक दोनों ही है। अब प्रश्न उठता है कि संस्कृत वाङमय में 'सांख्य' शब्द किसी भी प्रकार के मोक्षोन्मुख ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है या कपिलप्रणीत सांख्य दर्शन के लिए प्रयुक्त हुआ है? इसके उत्तर के लिए कतिपय प्रसंगों पर चर्चा अपेक्षित है।
  • श्री पुलिन बिहारी चक्रवर्ती ने चरक संहिता के दो प्रसंगों को उद्धृत करते हुए उनके अर्थ के सम्बन्ध में अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया। वे उद्धरण हैं-
सांख्यै: संख्यात-संख्येयै: सहासीनं पुनर्वसुम्।
जगद्वितार्थ पप्रच्छ वह्निवंश: स्वसंशयम्॥
यथा वा आदित्यप्रकाशकस्तथा सांख्यवचनं प्रकाशमिति
अयनं पुनराख्यातमेतद् योगस्ययोगिभि:।
संख्यातधर्मै: सांख्यैश्च मुक्तौर्मोक्षस्य चायनम्॥
सर्वभावस्वभावज्ञो यथा भवति निस्पृह:।
योगं यथा साधयते सांख्य सम्पद्यते यथा॥
  • प्रथम प्रसंग में श्री चक्रवर्ती संख्या को सम्यक-ज्ञान व ज्ञाता के रूप में प्रयुक्त मानते हैं और
  • द्वितीय प्रसंग में स्पष्टत: सांख्य दर्शनबोधक। यहाँ यह विचारणीय है कि चरक संहिताकार के समय तक एक व्यवस्थित दर्शन के रूप में कपिलोक्त दर्शन सांख्य के 'प में सुप्रतिष्ठित था और चरक संहिताकार इस तथ्य से परिचित थे। तब प्रथम प्रसंग में 'सांख्य' शब्द के उपयोग के समय एक दर्शन सम्प्रदाय का ध्यान रखते हुए ही उक्त शब्द का उपयोग किया गया होगा। संभव है कपिलप्रोक्त दर्शन मूल में चिकित्सकीय शास्त्र में भी अपनी भूमिका निभाता रहा हो और उस दृष्टि से चिकित्सकीय शास्त्र को भी सांख्य कहा गया हो।[8] इससे तो सांख्य दर्शन की व्यापकता का ही संकेत मिलता है[9] अत: दोनों प्रसंगों में विद्वान, ज्ञान आदि शब्द 'सांख्य ज्ञान' के रूप में ग्राह्य हो सकता है।
  • अहिर्बुध्न्यसंहिता के बारहवें अध्याय में कहा गया है-
सांख्यरूपेण संकल्पो वैष्णव: कपिलादृषे:।
उदितो यादृश: पूर्वं तादृशं श्रृणु मेऽधुना॥18
षष्टिभेदं स्मृतं तन्त्रं सांख्यं नाम महामुने:॥19
यहाँ 'सांख्य' शब्द को सम्यक ज्ञान व कापिल दर्शन 'सांख्य' दोनों ही अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। सांख्य रूप में (सम्यक ज्ञान रूप में) पूर्व में कपिल द्वारा संकल्प जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है- 'मुझसे सुनो। महामुनि का साठ पदार्थों के विवेचन से युक्त शास्त्र 'सांख्य' नाम से कहा जाता है। 'सांख्यरूपेण' उसको सम्यक ज्ञान व 'सांख्य दर्शन' दोनों ही अर्थों में समझा जा सकता है। यहाँ महाभारत शांतिपर्व का यह कथन कि 'अमूर्त परमात्मा का आकार सांख्य शास्त्र है'- से पर्याप्त साम्य स्मरण हो आता है।
  • श्वेताश्वतर उपनिषद में प्रयुक्त 'सांख्ययोगाधिगम्यम्[10]' की व्याख्या तत्स्थाने न कर शारीरक भाष्य[11] में शंकर ने 'सांख्य' शब्द को कपिलप्रोक्त शास्त्र से अन्यथा व्याख्यायित करने का प्रयास किया। शंकर कहते हैं- 'यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणं सांख्य- योगाभिपन्नम् इति, वैदिकमेव तत्र ज्ञानम् ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यामभिलप्यते' संभवत: यह स्वीकार कर लेने में कोई विसंगति नहीं होगी कि यहाँ सांख्य पद वैदिक ज्ञान के लिए प्रयुक्त हुआ है। लेकिन किस प्रकार के वैदिक ज्ञान का लक्ष्य किया गया है, यह विचारणीय है। श्वेताश्वतर उपनिषद में जिस दर्शन को प्रस्तुत किया गया है वह 'भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं' के त्रैत का दर्शन है। ऋग्वेद के 'द्वा सुपर्णा'- मन्त्रांश से भी त्रिविध अज तत्त्वों का दर्शन प्राप्त होता ही है। महाभारत में उपलब्ध सांख्य दर्शन भी प्रायश: त्रैतवादी ही है।
  • डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र ने ठीक ही कहा है- 'त्रैत मौलिक सांख्य की अपनी विशिष्टता थी, इससे स्पष्ट होता है कि मौलिक सांख्य दर्शन के इसी त्रैतवाद की पृष्ठभूमि में श्वेताश्वतर की रचना हुई।[12]' अत: इस अर्थ में सांख्य शब्द 'वैदिकज्ञान' के अर्थ में ग्रहण किया जाये तब भी निष्कर्ष में इसका लक्ष्यार्थ कपिलोक्त दर्शन ही गृहीत होता है।
  • भगवद्गीता में सांख्य-योग शब्दों का प्रयोग भी विचारणीय है क्योंकि विद्वानों में यहाँ भी कुछ मतभेद है। द्वितीय अध्याय के उन्चालीसवें श्लोक में कहा गया है- 'एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु'
  • अणिमा सेनगुप्ता का मत है कि यहाँ यह 'सांख्य' सत्य ज्ञान की प्राप्ति के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में व्याख्यायित नहीं किया जा सकता।[13] जबकि आचार्य उदयवीर शास्त्री ने बड़े विस्तार से इसे कपिलप्रोक्त 'सांख्य' के अर्थ में निरूपित किया। उक्त श्लोक में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि यह सब सांख्य बुद्धि (ज्ञान) कहा है अब योग बुद्धि (ज्ञान) सुनो। यहाँ विचारणीय यह है कि यदि 'सांख्य' शब्द ज्ञानर्थक है, सम्प्रदाय-विशेष नहीं, तव सांख्य 'बुद्धि' कहकर पुनरूक्ति की आवश्यकता क्या थी? बुद्धि शब्द से कथनीय 'ज्ञान' का भाव तो सांख्य के 'ख्याति' में आ ही जाता है। 'सांख्य' बुद्धि में यह ध्वनित होता है कि 'सांख्य' मानो कोई प्रणाली या मार्ग है, उसकी बुद्धि या 'ज्ञान' की बात कही गई है। वह चिन्तन की प्रणाली या मार्ग गीता में प्रस्तुत में ज्ञान या दर्शन ही होगा। गीता में जिस मुक्त भाव से सांख्य दर्शन के पारिभाषिक शब्दों या अवधारणाओं का प्रयोग किया गया है उससे यही स्पष्ट होता है कि वह 'सांख्य' ज्ञान ही है। अत: सांख्य शब्द को गीता का एक पारिभाषिक शब्द मान लेने पर भी उसका लक्ष्यार्थ कपिल का सांख्य शास्त्र ही निरूपित होता है।
  • भगवद्गीता के ही तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में 'सांख्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। कहा गया है-
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥ गीता 33
यहाँ भी दो प्रकार के मार्गों या निष्ठा की चर्चा की गई हैं-
  1. ज्ञानमार्ग
  2. कर्म-मार्ग। विचारणीय यह है कि जब 'कर्मयोगेन योगिनां' कहा जा सकता है तब 'ज्ञानयोगेन ज्ञानिना' न कहकर 'सांख्यानां' क्यों कहा गया? निश्चय ही 'ज्ञानयोगियों' के 'ज्ञान' के विशेष स्वरूप का उल्लेख अभीष्ट था। वह विशेष ज्ञान कपिलोक्त शास्त्र ही है, यह गीता तथा महाभारत के शान्ति पर्व से स्पष्ट हो जाता है। 'यदेव योगा: पश्यन्ति सांख्यैस्तदनुगम्यते[14]' इसीलिए शान्ति पर्व में वसिष्ठ की ही तरह गीता में श्रीकृष्ण भी कहते हैं- 'सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।[15]'
  • शांतिपर्व तथा गीता में तो समान वाक्य से एक ही बात कही गई है- 'एकं साख्यं च योगं च य: पश्यति स पश्यति।[16]'
  • गीता महाभारत का ही अंश है। अत: प्रचलित शब्दावली को समान रूप में ही ग्रहण किया जाना उचित है। गीता में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द भी चाहे वह ज्ञानार्थक मात्र क्यों न प्रतीत होता हो, कपिलप्रोक्त शास्त्र के रूप में ग्रहण करना चाहिए।
  • महाभारत के शांतिपर्व में प्रयुक्त 'सांख्य' शब्द का लक्ष्यार्थ तो इतना स्पष्ट है कि उस पर कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं। इतना ही उल्लेखनीय है कि कपिल और सांख्य का सम्बन्ध, और सांख्य दर्शन की शब्दावली का पुरातन व्यापक प्रचार-प्रसार इस बात का द्योतक है कि यह एक अत्यन्त युक्तिसंगत दर्शन रहा है। ऐसे दर्शन की ओर विद्वानों का आकृष्ट होना, उस पर विचार करना और अपने विचारों को उक्त दर्शन से समर्थित या संयुक्त बताना बहुत स्वाभाविक है। जिस तरह वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में गीता का इतना महत्त्व है कि प्राय: सभी आचार्यों ने इस पर भाष्य रचे और अपने मत को गीतानुसार बताने का प्रयास किया। इसी तरह ज्ञान के विभिन्न पक्षों में रुचि रखने वाले विद्वानों ने अपने विचारों को सांख्य रूप ही दे दिया हो तो क्या आश्चर्य? ऐसे विकास की प्रक्रिया में मूल दर्शन के व्याख्या-भेद से अनेक सम्प्रदायों का जन्म भी हो जाना स्वाभाविक है। अपनी रुचि, उद्देश्य और आवश्यकता के अनुसार विद्वान विभिन्न पक्षों में से किसी को गौण, किसी को महत्त्वपूर्ण मानते हैं और तदनुरूप ग्रन्थ रचना भी करते हैं। अत: किसी एक मत को मूल कहकर शेष को अन्यथा घोषित कर देना उचित प्रतीत नहीं होता। समस्त वैदिक साहित्य वेदों की महत्ता, उपयोगिता और आवश्यकतानुसार विभिन्न कालों में प्रस्तुति ही है। कभी कर्म यज्ञ आदि को महत्त्वपूर्ण मानकर तो कभी जीवन्त जिज्ञासा को महत्त्वपूर्ण मानकर वेदों की मूल भावना को प्रस्तुत किया गया। इससे किसी एक पक्ष को अवैदिक कहने का तो कोई औचित्य नहीं। परमर्षि कपिल ने भी वेदों को दार्शनिक ज्ञान को तर्क बुद्धि पर आधारित करके प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया। इसमें तर्कबुद्धि की पहुँच से परे किसी विषय को छोड़ दिया 'प्रतीत' हो तो इतने मात्र से कपिल दर्शन को अवैदिक नहीं कहा जा सकता।
सांख्य दर्शन की वेदमूलकता
  • सांख्य दर्शन की वैदिकता पर विचार करने से पूर्व वैदिक का अभिप्राय स्पष्ट करना अभीष्ट है। एक अर्ध वैदिक कहने का तो यह है कि जो दर्शन वेदों में है वही सांख्य दर्शन में भी हो। वेदों में बताये गये मानवादर्श को स्वीकार करके उसे प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र रूप से विचार किया गया हो, तो यह भी वैदिक ही कहा जायेगा। अब वेदों में किस प्रकार का दर्शन है, इस विषय में मतभेद तो संभव है लेकिन परस्पर विरोधी मतवैभिन्न्य हो, तो निश्चय ही उनमें से अवैदिक दर्शन की खोज की जा सकती है। वेदों में सृष्टिकर्ता परमात्मा की स्वरूप चर्चा में, जगत जीव के साथ परमात्मा के सम्बन्धों के बारे में मतभेद है। तब भी ये सभी दर्शन वैदिक कहे जा सकते हैं, यदि वे वेदों को अपना दर्शन-मूल स्वीकार करते हों। लेकिन यदि कोई दर्शन परमात्मा की सत्ता को ही अस्वीकार करे तो उसे परमात्मा की सत्ता को न मानने वाले दर्शन के रूप में स्वीकार करके ही किया जाता है। इस मत में कितनी सत्यता या प्रामाणिकता है यह सांख्य दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करने पर स्वत: स्पष्ट हो जावेगा।
  • महाभारत शान्तिपर्व में कहा गया है कि वेदों में, सांख्य में तथा योग शास्त्र में जो कुछ भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही आगत है। इसे अतिरंजित कथन भी माना जाये तो भी, इतना तो स्पष्ट है कि महाभारत के रचनाकार के अनुसार तब तक वेदों के अतिरिक्त सांख्य शास्त्र और योग शास्त्र भी प्रतिष्ठित हो चुके थे और उनमें विचार साम्य भी है। अत: इससे यह स्वीकार करने में सहायता तो मिलती ही है कि वेद और सांख्य परस्पर विरोधी नहीं हैं।
  • शान्ति पर्व में ही कपिल-स्यूमरश्मि का संवाद[17] प्राचीन इतिहास के रूप में भीष्म ने प्रस्तुत किया। इसमें कपिल को सत्त्वगुण में स्थित ज्ञानवान कहकर परिचित कराया गया। महाभारतकार ने कपिल का सांख्य-प्रवर्तक के रूप में उल्लेख किया, सांख्याचार्यों की सूची में भी एक ही कपिल का उल्लेख किया और 'स्यूमरश्मि-संवाद' में उल्लिखित कपिल का सांख्य-प्रणेता कपिल से पार्थक्य दिखाने का कोई संकेत नहीं दिया, तब यह मानने में कोई अनौचित्य नहीं है कि यह कपिल सांख्य-प्रणेता कपिल ही हैं।[18]
  • उपर्युक्त संवाद में स्यूमरश्मि द्वारा कपिल पर वेदों की प्रामाणिकता पर संदेह का आक्षेप लगाने पर कपिल कहते हैं- 'नाहं वेदान् विनिन्दामि[19]'
  • इसी संवाद क्रम में कपिल पुन: कहते हैं 'वेदा: प्रमाणं लोकानां न वेदा: पृष्ठत: कृता:[20]' फिर वेदों की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं।[21]
वेदांश्च वेदितव्यं च विदित्वा च यथास्थितिम्।
एवं वेद विदित्याहुरतोऽन्य वातरेचक:॥
सर्वे विदुर्वेदविदो वेदे सर्वं प्रतिष्ठितम्।
वेदे हि निष्ठा सर्वस्य यद् यदस्ति च नास्ति च॥
  • उक्त विचारयुक्त कपिल को अवैदिक कहना कदापि उचित प्रतीत नहीं होता। फिर, कपिल प्रणीत सूत्र द्वारा वेद के स्वत:प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है- 'निजशक्यभिव्यक्ते स्वत:प्रमाण्यम्[22]' इस सूत्र में अनिरुद्ध, विज्ञानभिक्षु आदि भाष्यकारों ने स्वत:प्रामाण्य को स्पष्ट किया है।
  • सांख्यकारिका में 'आप्तश्रुतिराप्तवचनम्[23]' कहकर वेद प्रामाण्य को स्वीकार किया गया है। 5वीं कारिका के भाष्य में वाचस्पति मिश्र कहते हैं- 'तच्च स्वत:प्रामाण्यम्, अपौरुषेयवेदवाक्यजनितत्वेन सकलदोषाशंकाविनिर्मुत्वेन युक्तं भवति।' इतना ही नहीं, 'वेदमूलस्मृतीतिहासपुराणवाक्यजनितमपि ज्ञानं युक्तं भवति' कहा है।
  • वेदाश्रित स्मृति, इतिहासपुराण वाक्य से उत्पन्न ज्ञान भी जब निर्दोष माना जाता है, तब वेद की तो बात ही क्या? इसी कारिका की वृत्ति में माठर कहते है- 'अत: ब्रह्मादय: आचार्या:, श्रुतिर्वेदस्तदेतदुभयमाप्तवचनम्।' इस तरह सांख्य शास्त्र के ग्रन्थों में वेदों का स्वत: प्रामाण्य स्वीकार करके उसे भी 'प्रमाण' रूप में स्वीकार करते हैं। तब सांख्य शास्त्र को अवैदिक या वेद विरुद्ध कहना कथमपि समीचीन नहीं जान पड़ता।
  • सांख्य दर्शन में प्रचलित पारिभाषिक शब्दावली भी इसे वैदिक निरूपित करने में एक महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है। 'पुरुष' शब्द का उपयोग मनुष्य, आत्मा, चेतना आदि के अर्ध में वैदिक वाङमय में अनेक स्थलों पर उपलब्ध है। लेकिन 'पुरुष' शब्द का दर्शन शास्त्रीय प्रयोग करते ही जिस दर्शन का स्मरण तत्काल हो उठता है वह सांख्य दर्शन है। इसी तरह अव्यक्त, महत, तन्मात्र, त्रिगुण, सत्त्व, रजस्, तमस आदि शब्द भी सांख्य दर्शन में दर्शन की संरचना इन्हीं शब्दों में प्रस्तुत किया गया है। अत: चाहे वैदिक साहित्य से ये शब्द सांख्य में आए हों या सांख्य परम्परा से इनमें गए हों, इतना निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि सांख्य दर्शन वैदिक है। षड्दर्शन में सांख्य दर्शन को रखना और भारतीय दर्शन की सुदीर्ध परम्परा में इसे आस्तिक दर्शन मानना भी सांख्य की वैदिकता का स्पष्ट उद्घोष ही है।

DR. SUSHIL KASHYAP

ज्ञानमीमांसा


ज्ञानमीमांसा  
ज्ञानमीमांसा दर्शनशास्त्र की एक शाखा है। दर्शनशास्त्र का ध्येय सत्‌ के स्वरूप को समझना है। सदियों से विचारक यह खोज करते रहे हैं, परंतु किसी निश्चित निष्कर्ष से अब भी उतने ही दूर प्रतीत होते हैं, जितना पहले थे। सदियों से सत्‌ के विषय में विवाद होता रहा है।
विद्वान
आधुनिक काल में 'देकार्त' (1596-1650 ई.) को ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वत: सिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक संदेह से आरंभ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता। संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है। इस नींव पर उसने अपने विचार में, परमात्मा और सृष्टि के अस्तित्व को सिद्ध किया। देकार्त की विवेचन-विधि नई थी, परंतु पूर्वजों की तरह उसका अनुराग भी तत्वज्ञान में ही था।[1]
  • 'जान लॉक' (1632-1704 ई.) ने अपने लिये नया मार्ग चुना। सदियों से सत्‌ के विषय में विवाद होता रहा है। पहले तो यह जानना आवश्यक है कि हमारे ज्ञान की पहुँच कहाँ तक है। इसी से ये प्रश्न भी जुड़े थे कि ज्ञान क्या है और कैसे प्राप्त होता है। यूरोप महाद्वीप के दार्शनिकों ने दर्शन को गणित का प्रतिरूप देना चाहा था, लॉक ने अपना ध्यान मनोविज्ञान की ओर फेरा 'मानव बुद्धि पर निबंध' की रचना की। यह युगांतकारी पुस्तक सिद्ध हुई, इसे 'अनुभववाद' का मूलाधार समझा जाता है।
  • 'जार्ज बर्कले' (1684-1753) ने लॉक की आलोचना में 'मानवज्ञान' के नियम लिखकर 'अनुभववाद' को आगे बढ़ाया, और डेविड ह्यूम (1711-1776 ई.) ने 'मानव प्रकृति' में इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया।
  • 'ह्यूम' के विचारों का विशेष महत्व यह है कि उन्होंने कांट (1724-1804 ई.) के 'आलोचनवाद' के लिये मार्ग खोल दिया। कांट ने 'ज्ञानमीमांसा' को दर्शनशास्त्र का केंद्रीय प्रश्न बना दिया। किंतु पश्चिम में ज्ञानमीमांसा को उचित पद प्रप्त करने में बड़ी देर लगी।
गौतम का न्यायसूत्र
भारत में कभी इसकी उपेक्षा हुई ही नहीं। गौतम के न्यायसूत्रों में पहले सूत्र में ही 16 विचारविषयों का वर्णन हुआ है, जिसके यथार्थ ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है। इनमें प्रथम दो विषय 'प्रमाण' और 'प्रमेय' हैं। ये दोनों ज्ञानमीमांसा और ज्ञेय तत्व ही हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों में भी प्रथम स्थान 'प्रमाण' को दिया गया है।
ज्ञानमीमांसा में प्रमुख प्रश्न
'ज्ञान', 'ज्ञाता' और 'ज्ञेय' का संबंध है। देकार्त ने अपने अनुभव के विश्लेषण से आरंभ किया, परंतु मनुष्य सामाजिक प्राणी है, उसका अनुभव शून्य में नहीं विकसित होता। दर्शनशास्त्र का इतिहास वादविवाद की कथा है। प्लेटो ने अपना मत संवादों में व्यक्त किया। संवाद में एक से अधिक चेतनाओं का अस्तित्व स्वीकार किया जाता है। ज्ञानमीमांसा में विवेचन का विषय वैयक्तिक चेतना नहीं, अपितु सामाजिक चेतना बन जाती है। ज्ञान का अपना अस्तित्व तो असंदिग्ध है, परंतु इसमें निम्नलिखित स्वीकृतियाँ भी निहित होती[1] हैं-
  1. ज्ञान से भिन्न ज्ञाता है, जिसे ज्ञान होता है।
  2. ज्ञान एक से अधिक ज्ञाताओं के संसर्ग का फल है।
  3. ज्ञान का विषय ज्ञान से भिन्न है।
प्रत्येक धारणा सत्य होने का दावा करती है। परंतु मीमांसा इस दावे को उचित जाँच के बिना स्वीकार नहीं कर सकता। हम अभी इन धारणाओं की परीक्षा करेंगे, परंतु पहले ज्ञान के स्वरूप पर कुछ कहना आवश्यक है।
ज्ञान का स्वरूप: सम्मति, विश्वास और ज्ञान
जब हम किसी धारणा को सुनते हैं या उसका चिंतन करते हैं तो उस सबंध में हमारी वृत्ति इस प्रकार की होती है --
  1. हम उसे सत्य स्वीकार करते हैं।
  2. उसे असत्य समझकर अस्वीकार करते हैं।
  3. सत्य और असत्य में निश्चय न कर सकें, तो स्वीकृति अस्वीकृति दोनों को विराम में रखते हैं। यह संदेह की वृत्ति है।
  4. उपन्यास पढ़ते हुए हम अपने आपको कल्पना के जगत्‌ में पाते हैं और जो कुछ कहा जाता है, उसे हम उस समय के लिये तथ्य मान लेते हैं। यह 'काल्पनिक स्वीकृति' है।
ज्ञान और ज्ञाता
अनुभववाद के अनुसार, ज्ञानसामग्री के दो ही भाग हैं- प्रभाव और उनके बिंब। द्रव्य के लिये इनमें कोई ज्ञान नहीं। ह्यूम ने कहा कि जिस तरह भौतिक पदार्थ गुणसमूह के अतिरिक्त कुछ नहीं, उसी तरह अनुभवी अनुभवों के समूह के अतिरिक्त कुछ नहीं। इन दोनों समूहों में एक भेद है- कुल के सभी गुण एक साथ विद्यमान होते हैं, चेतन की चेतनावस्थाएँ एक दूसरे के बाद प्रकट होती हैं। चेतना श्रेणी या पंक्ति है और किसी पंक्ति को अपने आप पंक्ति होने का बोध नहीं हो सकता। हृदय की व्याख्या में स्मरण शक्ति के लिये कोई स्थान नहीं; जैसे विलियम जेम्स ने कहा, "अनुभववाद को स्मृति माँगनी पड़ती है।" ह्यूम को ज्ञाता ज्ञानसामग्री में नहीं मिला; वह वहाँ मिल ही नहीं सकता था। अनुभववाद के लिये प्रश्न था- अनुभव क्या बताता है? पीछे कांट ने पूछा- अनुभव बनता कैसे है? अनुभव अनुभवी की क्रिया के बिना बन ही नहीं सकता।[1]
पुरुषबहुत्व
मनुष्य सामाजिक प्राणी है; हमारा सारा जीवन और मनुष्यों के साथ व्यतीत होता है। पुरुषबहुत्व व्यापक स्वीकृति है। मीमांसा के लिये प्रश्न यह है कि इस स्वीकृति की स्थिति दृढ़ विश्वास की स्थिति है या ज्ञान की? इस विषय में स्वप्न संदेह का कारण है। स्वप्न में मैं देखता सुनता प्रतीत होता हूँ; अन्य मनुष्यों के साथ संसर्ग भी होता प्रतीत होता है। क्या जागरण और स्वप्न का भी स्वप्न की प्रतीति तो नहीं? अहंवाद के अनुसार सारी सत्ता भारी कल्पना ही है। हमारा सामाजिक जीवन अहंवाद का खंडन है, परंतु प्रश्न तो सामाजिक जीवन के संबंध में ही है। क्या यह जीवन विश्वास मात्र ही तो नहीं? अहंवाद के विरुद्ध कोई ऐसा प्रमाण नहीं जिसे अखंडनीय कह सकें। जब हम ऐसे संदेह से ग्रस्त होते हैं तो, जैसा ह्यूम ने कहा है, थोड़े समय के बाद हम अपने आपको थका पाते हैं और हमारा ध्यान विवश होकर दुनिया की ओर फिरता है, जिसमें भौतिक पदार्थ भी हैं और चेतन प्राणी भी। जब बुद्धि काम नहीं करती, प्रकृति हमारी सहायता करती है।
प्रतिबोध मीमांसा
'अनुभववाद' के अनुसार सारा ज्ञान अंत में प्रभावों और उनके चित्रों से बनता है। प्रभाव में गुणबोध और वस्तुवाद का भेद कर सकते हैं; चित्र में प्रतिबिंब और प्रत्यय का भेद होता है। प्रत्येक ज्ञानेंद्रिय किसी विशेष गुण का चरिचय देती है- आँख रूप का, कान शब्द का, नाक गंध का। इन गुणों के समन्वय से वस्तुज्ञान प्राप्त होता है। इसे प्रतिबोध या प्रत्यक्ष भी कहते हैं। ऐसे बोध में ज्ञान का विषय ज्ञाता के बाहर होता है; प्रतिबिंब और प्रत्यय अंदर होते हैं। यह बाहर और अंदर का भेद कल्पना मात्र है या तथ्य है, ज्ञानमीमांसा में यह प्रमुख प्रश्न रहा है। प्रतिबोध या प्रत्यक्ष ज्ञान ने जितना ध्यान आकर्षित किया है, उतना ज्ञानमीमांसा में किसी अन्य प्रश्न ने नहीं किया।
सांख्य दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष के दो प्रमुख चिह्न हैं --
प्रत्यक्ष इंद्रिय और विषय के संपर्क का परिणाम होता है।
प्रत्यक्ष में चित्त विषय के आकार को ग्रहण कर लेता है।
इसका अर्थ यह है कि "प्रत्यक्ष ज्ञान कल्पनामात्र नहीं होता और इसमें किसी प्रकार की भ्रांति नहीं होती।" यह तो स्पष्ट ही है कि हमारे पास प्रत्यक्ष से अधिक विश्वस्त ज्ञान नहीं, परंतु प्रश्न यह है कि विषयी और विषय में सीधा संपर्क हो भी सकता है या नहीं। यदि ऐसा संपर्क होता है, तो भ्रांति कैसे प्रविष्ट हो जाती है? विषयी और विषय में कुछ अंतर होता है। इस अंतर की दशा हमारे बोध को प्रभावित करती है। जंगल के वृक्ष दूर से हरे नहीं दीखते, क्योंकि उनके रंग के साथ बीच में पड़ने वाली वायु का रंग भी मिल जाता है। फिर, हमारी इंद्रिय की अवस्था भी एक सी नहीं रहती, कान का रोगी पदार्थों को पीला देखता है। कुछ विचारक कहते हैं कि हम बाह्य पदार्थों को नहीं देखते, उनके चित्रों को देखते हैं, इन चित्रों के विषय में निश्चयपूर्वक नहीं कह सकते कि ये बाह्य पदार्थों के अनुरूप हैं; यहाँ भ्रांति की संभावना सदा बनी रहती है।[1]
वास्तववाद
'वास्तववाद' के दो रूप हैं- 'साक्षातात्मक वास्तववाद' और 'प्रतिबिंबात्मक वास्तववाद'। पहले रूप में भ्रांति का अस्तित्व समस्या बन जाता है, दूसरे रूप में सत्य ज्ञान का समाधान नहीं होता।
विज्ञानवाद अंदर और बाहर के भेद को समाप्त कर देता है। जान लॉक के विचारों में ही इसका बीज विद्यमान था। उसने कहा कि द्रव्य का प्रत्यय अस्पष्ट है। उसने यह भी कहा कि भौतिक पदार्थों के प्रधान गुण तो उनमें विद्यमान होते हैं, परंतु अप्रधान गुण वे परिणाम हैं जो प्रधान गुणों के आघात से हमारे मन में व्यक्त होते हैं। बर्कले ने कहा कि जो युक्तियाँ अप्रधान गुणों के वस्तुगत अस्तित्व के विरुद्ध दी जाती हैं, वही प्रधान गुणों के विरुद्ध दी जाती है। बाहर कुछ है ही नहीं, उसके बोध के स्पष्ट या अस्पष्ट होने का प्रश्न प्रत्यय बन गया है। इंद्रियदत्त (रूप, रस, गंध आदि) बाह्य पदार्थों के गुण नहीं, न ही ये मानसिक अवस्थाएँ हैं। ये ज्ञाता से भिन्न, उसके बाहर हैं और उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। रस्सला के अनुसार, 'इंद्रियग्राह्यों' के समूह विद्यमान हैं, इनके कुछ अंश गृहीत हो जाते हैं। हमारा परिबोध सत्य ज्ञान है, परंतु आंशिक ज्ञान।
ज्ञान की सीमाएँ
कांट ने अपनी विख्यात पुस्तक 'शुद्ध बुद्धि की समालोचना' को इन शब्दों के साथ आरंभ किया-
'इस बात में तो संदेह ही नहीं हो सकता कि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है। क्योंकि यह कैसे संभव है कि बोध शक्ति कुछ करने लगे, सिवाय इसके कि हमारी इंद्रियों को प्रभावित करनेवाले पदार्थ इसे यह क्षमता दें। परंतु यद्यपि हमारा सारा ज्ञान अनुभव के साथ आरंभ होता है, इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि सारा ज्ञान अनुभव की ही देन है। कांट ने अनुभव की बनावट में बुद्धि के भागदान पर बल दिया। ऐसा करने पर भी, उसने आरंभ में कहा कि हमारा विचार प्रकटनों की दुनिया से परे नहीं जा सकता। पीछे उसने अनुशीलक बुद्धि और व्यावहारिक बुद्धि में भेद किया और कहा कि अनुशीलक बुद्धि ज्ञान देती है, परंतु यह ज्ञान प्रकटनों की दुनिया से परे ही सत्ता है।
नीति की माँग
मनुष्य सारभूत रूप में नैतिक प्राणी है। नीति की माँगें ये हैं-
  1. मनुष्य के कर्तव्य हैं, इसलिये उसमें कर्तव्यपालन की क्षमता है; वह स्वाधीन है।
  2. मनुष्य का लक्ष्य अनंत है, इसकी सिद्धि के लिये अनंतकाल की आवश्यकता है। आत्मा अमर है।
  3. नीति की माँग यह है कि सदाचार और सुख संयुक्त हों। ऐसा संयोग हमारे वश में नहीं, परमात्मा ही ऐसा संयोग करने में समर्थ है; परमात्मा का अस्तित्व है।
परा तथा अपरा
भारत में 'परा विद्या' और 'अपरा विद्या' में भेद किया गया है और दोनों में प्रथम को ऊँचा पद दिया है। कुछ विचारक तो अपरा विद्या को अविद्या ही कहते हैं। प्लेटो ने विशेष पदार्थों के बोध को सम्मति का पद दिया, और सम्मति को विद्या और अविद्या के मध्य में रखा। प्रत्येक निर्माण सत्य होने का दावा करता है। इस दावे का अर्थ क्या है? निर्णय में दो प्रत्ययों या विचारों के संबंध की बात कही जाती है। यदि यह संबंध उन पदार्थों में भी विद्यमान है, जो उन विचारों के मूल हैं, तो निर्णय सत्य है। सत्य का यह समाधान 'अनुरूपतावाद' कहलाता है। विज्ञानवाद बाह्य जगत्‌ को कल्पना मात्र कहता है, इसके अनुसार सत्ता में चेतनाओं और चेतन अवस्थाओं के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।[1]
व्यवहारवाद
यदि कोई निर्णय शेष ज्ञान से संसक्त हो सकता है, तो वह सत्य है। यह 'अविरोधवाद' है। आधुनिकवाद काल में अमरीका में 'व्यवहारवाद' का प्रसार हुआ है। इसके अनुसार, जो धारणा व्यवहार में सफल सिद्ध होती है, वह सत्य है। सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं, जिसे हम देखते हैं; यह बनता है। वास्तव में यहाँ दो प्रश्न हैं- (1) सत्य का स्वरूप क्या है? (2) किसी धारणा के सत्य होने की कसौटी क्या है? अनुरूपतावाद पहले प्रश्न का उत्तर देता है तथा अविरोधवाद और व्यवहारवाद दूसरे प्रश्न का।
DR. SUSHIL KASHYAP